Sunday 26 August 2012

फिर इंसान से पशु ???

मंत्री अथवा गुरू किसे बनायें

जिसमें सत्‍य को सत्‍य एवं असत्‍य को असत्‍य कहने का साहस हो, जो चाटुकारिता में नहीं बल्कि राज्‍यहित में विश्‍वास रखता हो, जो मान अपमान से परे हो, जिसे धन का लोभ न हो, जो कंचन व कामिनी से अप्रभावित रहे उसी व्‍यक्ति को राजा को अपना मंत्री अथवा गुरू नियुक्‍त करना चाहिये - चाणक्‍य नीति


श्रेष्‍ठत्‍व प्राप्‍त करने के उपाय

अच्‍छा वक्‍ता बनना है तो अच्‍छे श्रोता बनो, अच्‍छा लेखक बनना है तो अच्‍छे पाठक बनो, अच्‍छा गुरू बनना है तो अच्‍छे शिष्‍य बनो, अच्‍छा राजा बनना है तो अच्‍छा नागरिक बनो अच्‍छा स्‍वामी बनना है तो अच्‍छे नौकर बनो - संकलित

विषय पर जानकारी कितनी

कई विषयों के बारे में थोडा थोडा ज्ञान होने से बेहतर है कि केवल कुछ या केवल एक विषय में ही मनुष्य निपुण यानि निष्णात हो ! तात्पर्य यह कि बहुत विषयों के कुछ कुछ ज्ञान से केवल कुछ विषय का पूरा ज्ञान होना अच्छा है !


उत्‍तम वाणी, सत्‍य वचन, धीर गंभीर मृदु वाक्‍य 

मनुष्‍य को सदा उत्‍तम वाणी अर्थात श्रेष्‍ठ लहजे में बात करना चाहिये, और सत्‍य वचन बोलना चाहिये, संयमित बोलना, मितभाषी होना अर्थात कम बोलने वाला मनुष्‍य सदा सर्वत्र सम्‍मानित व सुपूज्‍य होता है । कारण यह कि प्रत्‍येक मनुष्‍य के पास सत्‍य का कोष (कोटा) सीमित ही होता है और शुरू में इस कोष (कोटा) के बने रहने तक वह सत्‍य बोलता ही है, किन्‍तु अधिक बोलने वाले मनुष्‍य सत्‍य का संचित कोष समाप्‍त हो जाने के बाद भी बोलते रहते हैं, तो कुछ न सूझने पर झूठ बोलना शुरू कर देते हैं, जिससे वे विसंगतियों और उपहास के पात्र होकर अपमानित व निन्‍दनीय हो अलोकप्रिय हो जाते हैं । अत: वहीं तक बोलना जारी रखो जहॉं तक सत्‍य का संचित कोष आपके पास है । धीर गंभीर और मृदु (मधुर ) वाक्‍य बोलना एक कला है जो संस्‍कारों से और अभ्‍यास से स्‍वत: आती है ।  

उपयोगी बनो, समय का सदुपयोग करो

''चिल्‍ला कर और झल्‍ला कर बातें करना, बिना सलाह मांगे सलाह देना, किसी की मजबूरी में अपनी अहमियत दर्शाना और सिद्ध करना, ये कार्य दुनियां का सबसे कमजोर और असहाय व्‍यक्ति करता है, जो खुद को ताकतवर समझता है और जीवन भर बेवकूफ बनता है, घृणा का पात्र बन कर दर दर की ठोकरें खाता है ।''   
''जो समय को नष्‍ट करता है, समय भी उसे नष्‍ट कर देता है''''समय का हनन करने वाले व्‍यक्ति का चित्‍त सदा उद्विग्‍न रहता है, और वह असहाय तथा भ्रमित होकर यूं ही भटकता रहता है''

बेवकूफों और अन्‍धों के लिये शास्‍त्र और दर्पण क्‍या कर सकते हैं

यस्‍य नास्ति स्‍वयं प्रज्ञा शास्‍त्रं तस्‍य करांति किं
लोचनाभ्‍यां विहीनस्‍य दर्पण: किं करिष्यिति
जिस मनुष्‍य में स्‍वयं का विवेक, चेतना एवं बोध नहीं है, उसके लिये शास्‍त्र क्‍या कर सकता है । ऑंखों से हीन अर्थात अन्‍धे मनुष्‍य के लिये दर्पण क्‍या कर सकता है । 

पशु से इंसान बने और बने 


सबकी गति है एक सी अंत समय पर होय, जो आये हैं जायेंगे राजा रंक फकीर । जनम होत नंगे भये, चौपायों की चाल , न वाणी न वाक्‍य थे पशुवत पाये शरीर । धीरे धीरे बदल गये चौपायों से बन इंसान । वाक्‍य और वाणी मिली वस्‍त्र पहन कर हुये बने महान । जाति बनी और ज्ञान बढ़ा तो बॉंट दिया फिर इंसान । अंत समय नंगे फिर भये, गये सब वेद शास्‍त्र और ज्ञान ।।   
 




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